सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय की मांग कर रहीं कंगना रनोट लगातार मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार के निशाने पर हैं। इस बीच ऐसी खबरें हैं कि बिहार चुनाव के मद्देनजर वहां होने वाली वर्चुअल रैलियों में कंगना को लाया जा सकता है। हालांकि, बिहार के पत्रकार, साहित्यकार और खुद बीजेपी के नेताओं का मानना है कि कंगना को चुनाव प्रचार में उतारने से कोई फायदा नहीं होगा। उन्होंने इसके पीछे की वजह दैनिक भास्कर के साथ साझा की।
बिहार में जातिगत समीकरण आज भी हावी
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म समीक्षक और साहित्यकार विनोद अनुपम वोटर्स की सोच को डिकोड करते हैं। वे कहते हैं, "सुशांत सिंह राजपूत के लिए कंगना रनोट की लड़ाई और भाजपा के साथ बढ़ते उनके संबंध देख बिहार के चुनाव में उनकी सक्रियता की उम्मीद जरूर बढ़ गई है। लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि बिहार के वोटर्स में इसे लेकर क्यूरोसिटी है। बल्कि यह कहना भी मुश्किल है कि सुशांत की मौत भी चुनावी मुद्दा रहेगी।"
कंगना सिर्फ जाति विशेष तक सीमित
अनुपम ने आगे कहा, "बिहार में हमेशा से ही चुनाव अलग धरातल, अलग मुद्दे पर होते रहे हैं। यहां सुनी सबकी जाती है, लेकिन अंतिम ध्रुवीकरण में जाति की भूमिका प्रबल हो जाती है। ऐसे में कंगना एक जाति विशेष को एकजुट करने के लिए भले बुलाई जा सकती हैं। लेकिन इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि उनकी कोई बड़ी भूमिका होगी।"
सितारों के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता
बकौल अनुपम, "बिहार के चुनाव में पहले भी सितारे आते रहे हैं। अजय देवगन से लेकर नगमा तक। लेकिन लोगों ने उन्हें बिल्कुल भी तवज्जो नहीं दी। 2015 के चुनावी प्रचार में अजय देवगन आए और चले गए। अगले दिन अखबारों में कायदे से खबर तक नहीं लग सकी थी। चर्चा में भी आए तो भगदड़ के चलते। बिहार भाजपा के नेताओं ने भी तव्वजो नहीं दी थी।"
अनुपम आगे कहते हैं, "बिहारी राजनेताओं के मुंह से मिमिक्री मंजूर करते हैं, लेकिन अभिनेताओं की परफॉरमेंस को वे भाव नहीं देते। प्रकाश झा तो विशेष राज्य की मांग को लेकर धरने पर भी बैठे थे, लेकिन उन्हें पार्टी से तव्वजो नहीं मिली थी।"
मिडिल क्लास आज भी निर्णायक नहीं
अनुपम के मुताबिक, "बिहार में मिडिल क्लास अभी भी चुनाव में निर्णायक नहीं है, जिन्हें कंगना या सुशांत से मतलब है। यहां निर्णायक जरूरतमंद वोटर हैं ,जिनका पहला सवाल होता है मिलेगा क्या? वैसे भी इस बार बिहार में चुनाव को लेकर वोटर्स में अजीब सी निरपेक्षता देखी जा रही है।
राजनीतिक दलों के लिए चुनाव बाध्यता है और वोटर्स को लग रहा वे निरर्थक ही खतरे में धकेले जा रहे हैं। ऐसे में दलों का सारा जोर बूथ प्रबंधन पर है। एक बात यह भी कि जब सारी रैलियां वर्चुअल हो रही हैं और कंगना पहले से ही हर दिन वर्चुअल दिखाई दे ही रही हैं। ऐसे में बिहार के वोटर्स उनकी प्रतीक्षा क्यों करेंगे?
पॉलिटिकल वैल्यू बनी रहना बड़ी बात
जाने-माने पत्रकार पुष्य मित्र भी विनोद अनुपम से इत्तफाक रखते हैं। वे कहते हैं, "टीवी मीडिया में छाए रहने से कंगना की पॉलिटिकल वैल्यू जरूर काफी बढ़ गई है। लेकिन यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह सब बिहार चुनाव के प्रचार अभियान तक बरकरार रहेगा। अमूमन ऐसा देखा गया है कि टीवी मीडिया द्वारा तैयार किए गए स्टार की मियाद बहुत कम रहती है।
ज्यादा खींचा जा चुका सुशांत का मुद्दा
पुष्य मित्र ने आगे कहा, "सुशांत के मुद्दे को उसकी उम्र से ज्यादा खींचा जा चुका है। अब ज्यादातर लोग ऊबने लगे हैं। यह मुद्दा अब जितने दिन खींचा जाएगा, लोगों में बिहार के असली और जमीनी मुद्दों जैसे बाढ़, बेरोजगारी, पलायन, स्वास्थ्य सुविधाएं आदि के प्रति तड़प बढ़ती चली जाएगी। मुमकिन है यह मुद्दा बैक फायर कर जाए। यह बात जरूर है कि गांव-गांव तक यह मुद्दा पहुंच गया है और पॉलिटिकल डिबेट में शामिल हो गया है। लेकिन बिहार में सरकार के प्रति लोगों में नाराजगी है। भाजपा समर्थक भी नाराज हैं। हालांकि, लोगों के सामने दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा है।"
भाजपा कंगना को मंच प्रदान नहीं करेगी
बिहार भाजपा के प्रदेश महामंत्री देवेश कुमार ने कहा, "कंगना आती हैं तो उनका स्वागत है। यह लोकतंत्र है, लेकिन भाजपा उन्हें मंच प्रदान नहीं करेगी। हमारी पार्टी का अपना सिस्टम है। हम उन्हें क्यों लाएंगे? हमारे प्रधानमंत्री और बड़े नेता हमारे स्टार प्रचारक हैं। बिहार की जनता का मूड पीएम मोदी और नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार चाहती है।
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